tag:blogger.com,1999:blog-8097813596985589365.post5423723197329903848..comments2023-09-29T02:30:34.863-07:00Comments on "जीवन विद्या": "वर्तमान शिक्षा प्रणाली"Roshanihttp://www.blogger.com/profile/17011034595175312423noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-8097813596985589365.post-48126403178606994542010-09-28T22:07:54.306-07:002010-09-28T22:07:54.306-07:00जीवन को जीवन मान लेने की आवश्यकता है, 'मनुष्य ...जीवन को जीवन मान लेने की आवश्यकता है, 'मनुष्य में व्यवस्था की सहज अपेक्षा'. यह हर बच्चे में है. हर बच्चा जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यव्हार करने का इच्छुक, और सत्य वक्ता होता है. यह हर मानव संतान में स्वाभाविक रूप से होता है. शरीर को जीवन मान लेने से सार्वभौम-व्यवस्था का कोई स्वरूप प्रमाणित नहीं हो सकता. <br /><br />जीवन को जीवन 'मानने' के बाद जीवन को जीवन स्वरूप में 'जाना' भी जा सकता है - क्योंकि वह सच्चाई है. शरीर को जीवन 'मानने' वाली मान्यता 'जानने' तक नहीं पहुँचती, क्योंकि वह सच्चाई नहीं है. बिना जाने, या बिना ज्ञान के तृप्ति नहीं है, प्रमाण भी नहीं है. <br /><br />सच्चाई क्या है, क्या नहीं - यह अपनी-अपनी मान्यता की बात नहीं है. सच्चाई सह-अस्तित्व स्वरूप में है. उसको हम मान सकते हैं, जान सकते हैं. सच्चाई का प्रमाण मनुष्य अपने जीने में ही प्रस्तुत करता है. शरीर को जीवन मान कर मनुष्य जीने में व्यवस्था को प्रमाणित नहीं कर सकता. <br /><br />आप इसी बात को माने, ऐसा कोई आग्रह नहीं है. सच्चाई के बारे में यह एक प्रमाण सम्मत विकल्पात्मक प्रस्ताव है, यदि आपको सच्चाई की आवश्यकता है - तो आप इसका अध्ययन कर सकते हैं. यदि आप अपनी यथा-स्थिति में ही खुश हैं, तो वैसे ही रहिये. यह किसी पर आक्षेप भी नहीं है. यहाँ कह रहे हैं, शरीर संवेदनाओं को तृप्त करके जीवन आवश्यकता को तृप्त करने तक पहुँच नहीं सकते. यहाँ कह रहे हैं, जीवन आवश्यकता (ज्ञान) को तृप्त करके ही शरीर सवेद्नाएं संतुलित और नियंत्रित रह सकती हैं.Rakesh Guptahttps://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8097813596985589365.post-25868833609874301862010-09-28T10:32:07.357-07:002010-09-28T10:32:07.357-07:00@शरीर को जीवन न मान लेने का भी तो कोई कारण नहीं है...@शरीर को जीवन न मान लेने का भी तो कोई कारण नहीं है काम केवल क्षणिक सुख ही नहीं जीवन की ऊर्जा का भी केन्द्र है जैसे भोजन करना शरीर की ऊर्जा के लिए जरूरी है <br />@कोई भी सुख क्षणिक ही होता है अंतराल तो दुःख के होते हैं <br />@भोजन भी तो बार-बार किया जाता है <br />@पश्चिम से तुलना का कोई अर्थ नहीं है हर चीज़ को लेकर जैसा आडम्बर हमारे यहाँ है वैसा उनके यहाँ शायद नहीं है .. वैसे भी उन्मुक्त काम का कोई माडल उनके पास अभी तो नहीं है..उन्मुक्त हिंसा के कई माडल हैं उनके पास .. वहाँ भी अर्थ-केंद्रित सत्ता-सापेक्ष व्यवस्था का प्रतीक परिवार अस्तित्व में है <br />उन्मुक्त काम-व्यवस्था सम्बन्धों की बहुत गहरी और सूक्ष्म समझ (ज्ञान) से उपलब्ध आत्मानुशासन में ही संभव है ..ऐसा काम हिंसा-मुक्त काम होता है जिसमें किसी का किसी पर जबरन या थोपा हुआ अधिकार नहीं होता.. व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसकी जीवन व्यवस्था की स्वतंत्रता एक दुसरे की प्रतिभूति (जामन) होती है .. <br />पश्चिम से मुझे इस विषय में कुछ अधिक नहीं सीखना.. मेरे पास तो माडल कृष्ण की बाल्य-अवस्था है .. वह एक ऐसा परिवेश है जिसमें किसी का कुछ अपना नहीं और सब कुछ सभी का है ..वहाँ “मैं और मेरा परिवार” नहीं है.. वही मात्र ऐसी व्यवस्था प्रतीत होती है जहां कृष्ण जैसे व्यक्तित्व का निर्माण संभव है.. <br />@शरीर-संवेदनाओं के तृप्त हुए बिना जीवन तृप्ति सम्भव नहीं <br />@फिर तो मनुष्य के लिए किसी भी सत्ता-सापेक्ष व्यवस्था से मुक्त होना नितांत आवश्यक है <br />@ परिवारवाद यह फिर एक लंबी बहस का विषयश्याम जुनेजा https://www.blogger.com/profile/11410693251523370597noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8097813596985589365.post-83165887773674395272010-09-28T10:22:25.028-07:002010-09-28T10:22:25.028-07:00This comment has been removed by the author.श्याम जुनेजा https://www.blogger.com/profile/11410693251523370597noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8097813596985589365.post-82919811611223286482010-09-28T05:25:19.809-07:002010-09-28T05:25:19.809-07:00कामोन्माद का कारण है - शरीर को जीवन मान लेना. जब ...कामोन्माद का कारण है - शरीर को जीवन मान लेना. जब शरीर को ही जीवन मान लेते हैं, तो 'काम' अपने आप से सुख का केन्द्र बन जाता है, लेकिन 'काम' से मिलने वाला सुख क्षनिक होता है, दोबारा दोबारा उसी में सुख की तलाश करने से कामोन्माद भावी हो जाता है. पश्चिम में ऐसा सोचा गया की यदि काम के लिए उन्मुक्तता दी जाए, तो कामोन्माद नहीं होगा. लेकिन यह सोच नाकामयाब रही, यह हम सबके सामने है. समाज द्वारा निर्णीत पति-पत्नी सम्बन्ध में ही काम नियंत्रित होता है. काम का प्रयोजन संतान-उत्पत्ति है, जिससे मानव-शरीर परंपरा बनी रहे. मनुष्य एक जीवन-मूलक अभिव्यक्ति है. शरीर-संवेदनाओं के तृप्त होने के बाद जीवन-तृप्ति की सोचेंगे - ऐसी बात मनुष्य पर लागू नहीं होती, क्योंकि शरीर-संवेदनाओं में जीवन-तृप्ति हो ही नहीं सकती. जीवन अक्षय बल शक्ति संपन्न है. शरीर जीवन की अपेक्षाओं की पूर्ती कर नहीं सकता. जीवन की तृप्ति ज्ञान में ही है. ज्ञान-संपन्न होने के बाद संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं. वर्ना संवेदनाएं अनियंत्रित रहती हैं. <br /> <br />जीव-जानवरों में शरीर-संवेदनाओं के आधार पर विषयों के सीमा में व्यवस्था पूर्वक जीने का प्रावधान है. मनुष्य में जीवन-तृप्ति के आधार पर ही व्यवस्था पूर्वक जीने का प्रावधान है. जीव-जानवर मनुष्य के जीने का मॉडल नहीं हैं. <br /> <br />परिवार अहंकार पैदा नहीं करता. परिवार मानवीय व्यवस्था का पहला चरण है. परिवार में ही संबंधों की पहचान होती है. अहंकार होता है - आरोपित मानदंडों से. वस्तुओं का सही सही मूल्यांकन नहीं कर पाने से. भ्रम वश. शरीर को शरीर और जीवन को जीवन नहीं मानने से. संवेदनाओं पर नियंत्रण के बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती. परिवार में ही मनुष्य की पहचान होती है. व्यक्ति और समाज के बीच परिवार एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है. परिवार को छोड़ कर सामाजिकता को आज तक कोई पहचान नहीं पाया. <br /> <br />काम विकृति नहीं है. काम का प्रयोजन और जीने में उसका उचित स्थान जीवन-मूलक सोच से ही आता है. शरीर-मूलक सोच से कामोन्माद ही आता है.Rakesh Guptahttps://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8097813596985589365.post-38910812052474256382010-09-27T18:38:54.725-07:002010-09-27T18:38:54.725-07:00बाकि सब बातें तो ठीक है लेकिन "काम" को भ...बाकि सब बातें तो ठीक है लेकिन "काम" को भी इन विकृतियों से जोड़ कर देखना मुझे समझ नहीं आया..काम पर थोपी गयी वर्जनाएं कामोन्माद का कारण हैं .. जबकि लोभ और भोग पर असीमित छूट उनमें विकृति का कारण बनती है <br />मूल रूप से हर प्रकार की मानसिक विकृति अहंकार से उपजती है और अहंकार परिवार पैदा करता है .. मुझे लगता है सभी समस्याओं और दुःख की जड़ें "मैं और मेरा परिवार" में व्याप्त हैं.. परिवार का विकल्प खोजे बिना किसी भी उन्माद से पीछा छुडा पाना सम्भव नहीं होगाश्याम जुनेजा https://www.blogger.com/profile/11410693251523370597noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8097813596985589365.post-14250262280704461402009-12-30T01:38:15.815-08:002009-12-30T01:38:15.815-08:00एक और भी बात है - ऐसा नहीं है, सभी "शिक्षित&q...एक और भी बात है - ऐसा नहीं है, सभी "शिक्षित" लोग फ्रायड, स्मिथ, और डार्विन के प्रतिपादनों को पढ़े हों. जो लोग अनपढ़ हैं - वे भी इन उन्मादों से ग्रस्त नजर आते हैं. जो लोग पढ़े-लिखे हैं, वे इन उन्मादों से ज्यादा ग्रसित नजर आते हैं. इससे पता चलता है, हमारी वर्तमान-शिक्षा में गड़बड़ी है. अनपढ़ लोग मजबूरी वश पढ़े-लिखे लोगों का अनुकरण करते हैं, और जब उनके शोषण से पूरी तरह त्रसित हो जाते हैं तो उनका विरोध करते हैं. <br /><br />कुल मिला कर यह "चेतना के स्तर" में फर्क की बात है. चेतना का स्तर से आशय है - हमारे "सोचने" का तरीका. शिक्षा विधि से सोच में परिवर्तन लाया जा सकता है - यह मध्यस्थ-दर्शन (जीवन विद्या) कार्यक्रम का दावा है. सह-अस्तित्व को "समझने" से मनुष्य की सोच बदल जाती है. मनुष्य जीव-चेतना से मानव-चेतना में संक्रमित हो जाता है. इस तरह जीवन-विद्या कार्यक्रम चेतना-विकास पूर्वक मूल्य-शिक्षा के अर्थ में है. <br /><br />जब हम मानव-चेतना के reference से प्रचलित-शिक्षा की समीक्षा करने जाते हैं तो पता चलता है - प्रचलित-शिक्षा "उन्मादी" है. इसको पढ़ कर विश्व में उन्माद बढ़ता जा रहा है. संघर्ष बढ़ता जा रहा है. साथ ही ऐसी सोच से जो ढाँचे बने हैं, उनसे अव्यवस्था ही फ़ैल रही है. <br /><br />मानव-चेतना जीव-चेतना से अधिक विकसित है. इसमें उन्माद के स्थान पर न्याय, धर्म, और सत्य को समझाया जाता है. <br /><br />अब हमको क्या करना है? हमको पहले अपनी सोच के तरीके को देखना है, उसको सुधारने के लिए काम करना है.<br /><br />हमारी स्वयं की चेतना का स्तर जब बदल जाता है, तो हम दूसरों को प्रेरित करने योग्य भी हो जाते हैं. इस तरह "गुणित" होने की बात बनती है. <br /><br />यही शिक्षा में परिवर्तन का आधार है.Rakesh Guptahttps://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com