Tuesday, January 12, 2010

अस्तित्व और सहअस्तित्व

हर ईकाई स्वयं में एक व्यवस्था है और वह व्यवस्था है इसका प्रमाण क्या है?
"समग्र व्यवस्था में भागीदार है।"
हर ईकाई यहाँ इसका मतलब है पदार्थ, जीव, पेड़-पौधे,अणु, परमाणु सौर मंडल सभी स्वयं में एक व्यवस्था है।
आप इसे स्वयं जाँचें।
इन सबका एक निश्चित आचरण है ....
जैसे सौरमंडल को आप देखकर समझते हैं कि सभी ग्रह-नक्षत्र ,तारे एक निश्चित भूमिका में है ये श्रेष्ठता का सम्मान करते हुए एक निश्चित दूरी बनाकर परिक्रमा करते हैं
इनमें एक व्यवस्था है इसका प्रमाण क्या है? इनमें कभी भी अन्तर्विरोध /संघर्ष नहीं होता।
"सम्बन्ध है तो शोषण/संघर्ष/विरोध नहीं ,शोषण/संघर्ष/विरोध है तो सम्बन्ध नहीं"
अगर कोई भी ईकाई स्वयं में व्यवस्थित है तो वह दूसरी ईकाई के विकास में कभी बाधा नहीं बनती और उसके विकास में सहयोग करती है।


हर ईकाई का होना अस्तित्व में है और होने के बीच जो अंतर्संबंध है वह सह अस्तित्व है।
अर्थात अस्तित्व(होना/existence) ही सहस्तित्व है।
इन चित्रों में देखिये यहाँ पेड़, मृदा और वायु होने के रूप में है।

और इस चित्र में देखिये उनके बीच सम्बन्ध अर्थात होने के बीच अंतर्संबंध को दिखाया गया है।
इसे समझने वाला मानव है इसे समझने का प्रयोजन है कि इसके साथ अपनी उपयोगिता और पूरकता को सिद्ध करना।

मानव, मानव और प्रकृति को जैसा वह है वैसा समझना तो चाहता है पर समझ नहीं पाया यह उसके जीने से सिद्ध होता है प्रमाणित होता है ......
परिणाम स्वरूप वह दुःख, भय, समस्या और असुरक्षा में जीता है या कहें जी नहीं पाता।
मानव समझना तो चाहता है इसका प्रमाण क्या है?

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एक महत्वपूर्ण टिपण्णी आदरणीय राकेश जी से-

अस्तित्व का मतलब है - "होना". "नहीं होना" - कुछ "होता" नहीं है. जो "है" उसी को हम समझ सकते हैं, उसी को समझने की ज़रुरत है, उसी के साथ हमको जीना होता है. यह एक मूल मुद्दा है. हम इस प्रस्ताव में केवल "जो है" - उसी को समझेंगे. दूसरे कोण से देखें तो - यदि हम "जो है" उसको नहीं समझते, तो समस्या-ग्रस्त रहते हैं. समस्या-ग्रस्त रहना हम "चाहते" तो नहीं हैं. दूसरे शब्दों में - हम अस्तित्व का अध्ययन करेंगे. यह सोचने पर बड़ा भारी सा लगता है. सब कुछ को कैसे समझेंगे? सब कुछ समझना सभी के बल-बूते का नहीं है - ऐसा सब मन में आता है. यहाँ सबसे पहला आश्वासन है - "अस्तित्व को मनुष्य समझ सकता है."दूसरे - अस्तित्व को मनुष्य "ही" समझ सकता है. मनुष्य के अलावा अस्तित्व में किसी को "समझने" की आवश्यकता नहीं है. तीसरे - मनुष्य ही मनुष्य को "समझा" सकता है. और कोई पत्थर, पेड़-पौधे, जानवर "समझाने" की जिम्मेदारी नहीं लेते. न वे "समझा" सकते हैं. ये सभी मनुष्य के लिए समझने की वस्तुएं हैं. समझाने वाली इकाई मनुष्य ही है. अस्तित्व में दो तरह की वस्तुएं हैं. पहली जिनको हम गिन सकते हैं - जैसे मिट्टी-पत्थर, पेड़-पौधे, जीव-जानवर, मनुष्य. ये सब "अनंत" हैं - मतलब जितना भी हम गिने, अस्तित्व में इनकी संख्या उससे ज्यादा हैं. दूसरे - खाली स्थली. जिसमें ये सभी इकाइयां स्थित हैं. अगर खाली स्थली नहीं है, तो इकाइयों को अलग-अलग पहचाना नहीं जा सकता. यह खाली-स्थाई हर जगह है, इसके आर-पार दीखता है, और यह इकाइयों में से पारगामी है. इकाइयां (जिनको हम गिन सकते हैं) - इस व्यापक वस्तु में डूबी-भीगी-घिरी हैं. व्यापक-वस्तु स्वयं ऊर्जा है. इकाई के "होने" के लिए जो ऊर्जा चाहिए - वह ऊर्जा यह व्यापक-वस्तु ही है. इकाइयां ऊर्जित हैं - इस ऊर्जा में संपृक्त होने के कारण. यह सह-अस्तित्व का मूल रूप है. इकाइयों और व्यापक-ऊर्जा का सह-अस्तित्व. यह कभी भी समाप्त नहीं होता. इकाइयों को ऊर्जा निरंतर मिलती ही रहती है. इसीलिये इकाइयों का अस्तित्व मिटाया नहीं जा सकता. परिवर्तन हो सकता है, गायब होना नहीं. इसीलिये सभी इकाइयों का "मूल धर्म" अस्तित्व है. "होना" हम सभी का, और सभी वस्तुओं का धर्म है. इकाई का "होना" नहीं मिट सकता! इकाइयां व्यापक के सह-अस्तित्व में होने से ऊर्जित हैं, यह स्पष्ट हुआ. लेकिन ऊर्जित हो कर करेंगी क्या? दो परमाणु-अंश ऊर्जित हैं. ये ऊर्जित हो कर करेंगे क्या? क्या ये मूलतः सघर्ष करेंगे? खींच-तान करेंगे? इस प्रस्ताव के अनुसार - इकाइयां परस्पर सह-अस्तित्व में व्यवस्था बनाने के लिए ही ऊर्जित हैं. दो परमाणु-अंश ऊर्जित हैं, और एक परमाणु के रूप में व्यवस्था बनाने के रूप में सहज रूप में प्रवृत्त है. इसी तरह दो परमाणु एक अणु बनाने के लिए प्रवृत्त हैं. इसी तरह अनुएं अणु-रचित रचनाएँ बनाने के लिए प्रर्वित्त हैं. इस तरह अस्तित्व में हरेक इकाई अपने आप में एक व्यवस्था है, और समग्र व्यवस्था में भागीदार है. इसके साथ साथ एक और भी बात है - अस्तित्व में एक दिशा है. अस्तित्व में "विकास" और "जाग्रति" की ओर दिशा है. कोई भी धरती समृद्ध होने की ओर ही अग्रसर रहती है. यह विकास की ओर उन्मुखता सह-अस्तित्व में प्रगटन विधि से है. इसी क्रम में अस्तित्व में चार अवस्थाएं क्रमिक रूप से प्रकट होती हैं. हर अवस्था अपने तरीके से सह-अस्तित्व में पूरकता और उपयोगिता को प्रमाणित करती है. हम स्वयं प्रकृति की इकाइयां हैं - इसलिए यह विकास की ओर उन्मुखता हममें भी है. जीवन में सुख की प्यास है. इसी वजह से मनुष्य हर क्षण सुख चाहता है. हमारा सुखी होना चाहना एक अस्तित्व-सहज, नियति-सहज बात है. हमारे सुखी होने के लिए हमें अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझना आवश्यक है. यदि ऐसे नहीं समझते तो हमारा अनचाही समस्याओं में ग्रसित हो जाना स्वाभाविक है. यदि हम नहीं समझते तो अस्तित्व में ह्रास की ओर गति शुरू हो जाना स्वाभाविक है। ह्रास की ओर गति इसलिए ताकि विकास और जाग्रति की ओर दिशा बनी रहे. मनुष्य के न समझने की वजह से ही हमारी धरती ह्रास की ओर गतिशील हो चुकी है. धरती पर जो आवेश पैदा किया गया है, उसका असर भुगतने के बाद ही विकास की ओर दिशा प्रशस्त होगी. धरती पर आवेश पैदा करना बंद करना आवश्यक है. तभी धरती समय रहते अपना सुधार कर सकती है. धरती की ह्रास की ओर गतिशीलता को नियति-सहज दिशा में लाने के लिए मनुष्य द्वारा पुरुषार्थ की ज़रुरत है. यह पुरुषार्थ है - "अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझना".

आदरणीय राकेश जी आपका सहृदय आभार....

5 comments:

Roshani said...

आदरणीय राकेश जी कृपया अस्तित्व और सहस्तित्व पर और प्रकाश डालें....
धन्यवाद....

Rakesh Gupta said...

अस्तित्व का मतलब है - "होना". "नहीं होना" - कुछ "होता" नहीं है. जो "है" उसी को हम समझ सकते हैं, उसी को समझने की ज़रुरत है, उसी के साथ हमको जीना होता है. यह एक मूल मुद्दा है. हम इस प्रस्ताव में केवल "जो है" - उसी को समझेंगे. दूसरे कोण से देखें तो - यदि हम "जो है" उसको नहीं समझते, तो समस्या-ग्रस्त रहते हैं. समस्या-ग्रस्त रहना हम "चाहते" तो नहीं हैं.

दूसरे शब्दों में - हम अस्तित्व का अध्ययन करेंगे.

यह सोचने पर बड़ा भारी सा लगता है. सब कुछ को कैसे समझेंगे? सब कुछ समझना सभी के बल-बूते का नहीं है - ऐसा सब मन में आता है.

यहाँ सबसे पहला आश्वासन है - "अस्तित्व को मनुष्य समझ सकता है."

दूसरे - अस्तित्व को मनुष्य "ही" समझ सकता है. मनुष्य के अलावा अस्तित्व में किसी को "समझने" की आवश्यकता नहीं है.

तीसरे - मनुष्य ही मनुष्य को "समझा" सकता है. और कोई पत्थर, पेड़-पौधे, जानवर "समझाने" की जिम्मेदारी नहीं लेते. न वे "समझा" सकते हैं. ये सभी मनुष्य के लिए समझने की वस्तुएं हैं. समझाने वाली इकाई मनुष्य ही है.

अस्तित्व में दो तरह की वस्तुएं हैं. पहली जिनको हम गिन सकते हैं - जैसे मिट्टी-पत्थर, पेड़-पौधे, जीव-जानवर, मनुष्य. ये सब "अनंत" हैं - मतलब जितना भी हम गिने, अस्तित्व में इनकी संख्या उससे ज्यादा हैं. दूसरे - खाली स्थली. जिसमें ये सभी इकाइयां स्थित हैं. अगर खाली स्थली नहीं है, तो इकाइयों को अलग-अलग पहचाना नहीं जा सकता. यह खाली-स्थाई हर जगह है, इसके आर-पार दीखता है, और यह इकाइयों में से पारगामी है.

इकाइयां (जिनको हम गिन सकते हैं) - इस व्यापक वस्तु में डूबी-भीगी-घिरी हैं. व्यापक-वस्तु स्वयं ऊर्जा है. इकाई के "होने" के लिए जो ऊर्जा चाहिए - वह ऊर्जा यह व्यापक-वस्तु ही है. इकाइयां ऊर्जित हैं - इस ऊर्जा में संपृक्त होने के कारण. यह सह-अस्तित्व का मूल रूप है. इकाइयों और व्यापक-ऊर्जा का सह-अस्तित्व. यह कभी भी समाप्त नहीं होता. इकाइयों को ऊर्जा निरंतर मिलती ही रहती है. इसीलिये इकाइयों का अस्तित्व मिटाया नहीं जा सकता. परिवर्तन हो सकता है, गायब होना नहीं. इसीलिये सभी इकाइयों का "मूल धर्म" अस्तित्व है. "होना" हम सभी का, और सभी वस्तुओं का धर्म है. इकाई का "होना" नहीं मिट सकता!

इकाइयां व्यापक के सह-अस्तित्व में होने से ऊर्जित हैं, यह स्पष्ट हुआ. लेकिन ऊर्जित हो कर करेंगी क्या? दो परमाणु-अंश ऊर्जित हैं. ये ऊर्जित हो कर करेंगे क्या? क्या ये मूलतः सघर्ष करेंगे? खींच-तान करेंगे? इस प्रस्ताव के अनुसार - इकाइयां परस्पर सह-अस्तित्व में व्यवस्था बनाने के लिए ही ऊर्जित हैं. दो परमाणु-अंश ऊर्जित हैं, और एक परमाणु के रूप में व्यवस्था बनाने के रूप में सहज रूप में प्रवृत्त है. इसी तरह दो परमाणु एक अणु बनाने के लिए प्रवृत्त हैं. इसी तरह अनुएं अणु-रचित रचनाएँ बनाने के लिए प्रर्वित्त हैं. इस तरह अस्तित्व में हरेक इकाई अपने आप में एक व्यवस्था है, और समग्र व्यवस्था में भागीदार है.

इसके साथ साथ एक और भी बात है - अस्तित्व में एक दिशा है. अस्तित्व में "विकास" और "जाग्रति" की ओर दिशा है. कोई भी धरती समृद्ध होने की ओर ही अग्रसर रहती है. यह विकास की ओर उन्मुखता सह-अस्तित्व में प्रगटन विधि से है. इसी क्रम में अस्तित्व में चार अवस्थाएं क्रमिक रूप से प्रकट होती हैं. हर अवस्था अपने तरीके से सह-अस्तित्व में पूरकता और उपयोगिता को प्रमाणित करती है. हम स्वयं प्रकृति की इकाइयां हैं - इसलिए यह विकास की ओर उन्मुखता हममें भी है. जीवन में सुख की प्यास है. इसी वजह से मनुष्य हर क्षण सुख चाहता है.

हमारा सुखी होना चाहना एक अस्तित्व-सहज, नियति-सहज बात है. हमारे सुखी होने के लिए हमें अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझना आवश्यक है. यदि ऐसे नहीं समझते तो हमारा अनचाही समस्याओं में ग्रसित हो जाना स्वाभाविक है. यदि हम नहीं समझते तो अस्तित्व में ह्रास की ओर गति शुरू हो जाना स्वाभाविक है. ह्रास की ओर गति इसलिए ताकि विकास और जाग्रति की ओर दिशा बनी रहे. मनुष्य के न समझने की वजह से ही हमारी धरती ह्रास की ओर गतिशील हो चुकी है. धरती पर जो आवेश पैदा किया गया है, उसका असर भुगतने के बाद ही विकास की ओर दिशा प्रशस्त होगी. धरती पर आवेश पैदा करना बंद करना आवश्यक है. तभी धरती समय रहते अपना सुधार कर सकती है. धरती की ह्रास की ओर गतिशीलता को नियति-सहज दिशा में लाने के लिए मनुष्य द्वारा पुरुषार्थ की ज़रुरत है. यह पुरुषार्थ है - "अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझना".

धन्यवाद,
राकेश

Roshani said...

आदरणीय श्री राकेश जी बहुत बहुत धन्यवाद.....अस्तित्व और सहस्तित्व मेरे लिए बेहद कठिन विषय था पर आपने बहुत ही अच्छे से इसे समझाया
सहृदय धन्यवाद...
आगे भी इसी तरह स्नेह बनायें रखे...
धन्यवाद.....

Rakesh Gupta said...

धन्यवाद...

आपने पूछा - "मानव समझना तो चाहता है इसका प्रमाण क्या है?"

मैं इस प्रश्न को इस तरह समझा - मैं स्वयं समझना चाहता हूँ, यह बात मुझे पता है. लेकिन समझ का प्रमाण क्या होगा - यह मुझे पता नहीं है.

यह एक मौलिक बात है. मनुष्य में "समझ की चाहत" बनी हुई है. यह हर बच्चे-बड़े में समान रूप से है. यह चाहत एक "खोखलेपन" के रूप में हर मनुष्य में है. सब कुछ करने के बाद भी कुछ अभी शेष है - यह रिक्तता मनुष्य में जन्म से मृत्यु तक बनी रहती है. समझ की चाहत ही "सुख की चाहत" है. सुख को हम जानते नहीं हैं, पर सुख चाहते हैं. समझ हमें मिली नहीं है, पर हम समझ चाहते हैं. इस कमी को पूरा करने के लिए ही मध्यस्थ-दर्शन का अनुसंधान हुआ, जो अब अध्ययन के लिए उपलब्ध है.

सुख का प्रमाण सुखी-मनुष्य ही होगा. सुखी-मनुष्य के बिना हम "सुख" को पहचान नहीं सकते.
समझ का प्रमाण समझदार आदमी ही होगा. जीते-जागते समझदार-आदमी के बिना हम "समझदारी" को पहचान नहीं सकते.

समझ का प्रमाण के रूप में एक "समझदार-मनुष्य" को यदि हम पहचान पाते हैं, और स्वयं को यदि "समझ चाहने वाले मनुष्य" के रूप में पहचान पाते हैं - तो अध्ययन करने में मन लगता है. नहीं तो अध्ययन में पूरा मन नहीं लगता. ध्यान बंटा ही रहता है.

अध्ययन के लिए मन लगना ही एकाग्रता है, या ध्यान-देना है.

समझदार आदमी की बात पर ध्यान देने पर हम समझ सकते हैं.

समझदार-आदमी की बात ही "प्रेरणा" है - जिससे अध्ययन करने वाले की कल्पनाशीलता "प्रेरित" होती है. कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु ही "समझ" है. बारम्बार समझने के प्रयास से समझ में आ जाएगा - मैं स्वयं को उसी क्रम में पाता हूँ.

समझ कर "समझ का प्रमाण" हम अपने जीने में प्रस्तुत कर सकते हैं. स्वयं सुखी रह सकते हैं. दूसरों के लिए प्रेरणा-स्त्रोत भी बन सकते हैं.

धन्यवाद...

श्याम जुनेजा said...

प्रिय रौशनी जी प्रिय राकेश जी आप दोनों ने यह जो संवाद स्थापित किया है बहुत कीमती है अवश्य ही इसमें भाग लेना चाहूँगा लेकिन एक बार फिर से इस विवेचना का अध्ययन करना पडेगा तब ..आप दोनो का बहुत धन्यवाद ..रौशनी आपकी यह पंक्ति बहुत अच्छी लगी "सम्बन्ध हैं तो शोषण/संघर्ष /विरोध नहीं ...शोषण/संघर्ष /विरोध है तो सम्बन्ध नहीं बहुत सुन्दर .. यही सार तत्व हैं हमारे आज का..शोषण/संघर्ष /विरोध है तो तोडो संबंधों को बिखर जाने दो ..क्या जरूरत है मोहपाश में खुद को बंधे रखने की और दूसरों को बाँध कर रखने की