Saturday, January 30, 2010

"फिर बच्चे पढ़ने में मन क्यों नहीं लगाते?"

कैसे लगेगा भाई?
पढ़ना और पढ़ाना बहुत ही अस्वाभाविक क्रिया है।
शिक्षक पढ़ा-पढ़ा कर बोर हो गया बच्चे पढ़-पढ़कर।
हम उसे क्यों पढ़ा रहे हैं क्योंकि इससे परिवार चलना है।

समझना और समझाना, समझना और जीना बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस क्षण बच्चे को लगता है कि मुझे समझने के लिए कुछ पढ़ना है फिर उसे कुछ motivation की ज़रूरत नहीं है।
समझना मानव की मौलिकता है यह उसकी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है इसे ना तो माता-पिता और ना ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली समझ पाते हैं।

समझने के लिए पढ़ना कि पढ़ने के लिए पढ़ना?
पढ़ने के लिए और रटने के लिए डाटा इकठ्ठा करने के लिए आदमी को कष्ट देने कि ज़रूरत नहीं है। इसके लिए कम्प्यूटर पर्याप्त है।
सारा रामायण, गीता, भागवत अंग्रेजी, हिंदी और २५ भाषाओं में डाल दीजिये सबकी व्याख्या वो कर देगा। उसके लिए आदमी को कष्ट देने कि ज़रूरत नहीं है।

"समझने" की ज़रूरत आदमी को है समझ के आधार पर जीने की ज़रूरत आदमी को है।
समझना एक रोचक काम है और जीना समझने से ज्यादा और किसी तक पहुंचा पाना और रोचक है।

अभी हमारे routine में समझने शब्द को इस्तेमाल करना और वास्तव में समझने शब्द के बीच कितनी दूरी है। आगे सोम भैया कहते हैं वर्तमान में समझने का क्या मतलब है यह आपके सामने एक प्रस्ताव रख रहा हूँ इसे आप स्वयं जांचें।

जैसे कुछ बात बोली....और क्या बोलते हैं हम "समझ गए ना?"

अगर उसे कुछ संदेह है तो वह कहता है..."ऐसा तो नहीं..."

तो हम क्या कहते हैं?...."समझे की नहीं....." और नहीं तो "बाहर निकालकर समझा दूंगा..."


हम अपनी पद प्रतिष्ठा के आधार पर अपनी उम्र के आधार पर अपनी किसी और status के आधार पर दुसरे से अपनी बात मनवा लेने को हम समझना बोलते हैं।

समझना हमारा स्वत्व है
स्वत्व (स्व+त्व) मेरी मौलिकता है मेरी पूँजी है आप मेरी पूँजी मुझसे छीन लेते हो। समझना मुझे है आदेश आपने पारित कर दिया।

तो भईया मैं किसी बात को जाँच सकूँ , जाँच कर उसके सहीपन को पा सकूँ और फिर उसे स्वीकारना तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
सारे सन्दर्भों में चर्चा करने पर हमें समझ आता है -"समझना मानव की मौलिक आवश्यकता है पढ़ना पढ़ाना नहीं ! "

इसलिए बच्चों को पढ़ने में रूचि नहीं है।
*************
एक टिपण्णी आदरणीय राकेश जी से -
यह बहुत सुन्दर प्रस्तुति है. इस बात को थोडा आगे बढ़ा सकते हैं.

दो भाग हैं - "समझना" और "करना".

हम कुछ न कुछ हर समय "कर" ही रहे होते हैं. इस तरह जीते हुए हम "कर के समझने" का प्रयास कर रहे होते हैं. विज्ञान विधि में भी "करके समझने" का सन्देश है. "practical करके देखोगे तो समझ में आएगा" - ऐसा कहते हैं. दूसरे अध्यात्मवादी विधि में भी "कर के समझने" का ही सन्देश है. "यह पूजा करो, ऐसे ध्यान करो, ऐसे दान करो - तब समझ में आएगा" - वे लोग ऐसा कहते हैं. इन दोनों के अलावा तीसरी सोच कोई अभी तक मनुष्य के इतिहास में आयी नहीं है. इन दोनों विधियों से आदमी ने खूब चल के भी देखा है. इन पर चल कर हम कहाँ पहुँच चुके हैं - यह हमारे सामने है.

इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव में सन्देश है - "समझ के करो!"

(१) करके समझ पैदा नहीं होती. समझने से ही समझ आता है. [ इसका प्रमाण है - आदर्शवादी या भौतिकवादी विधि से करके समझ अभी तक धरती पर पैदा नहीं हुई. ]
(२) जो समझा हो, वही समझा सकता है. नासमझ समझा नहीं पाता है. [ इसका प्रमाण है - अध्यापक और माता-पिता बच्चों को समझा नहीं पाते हैं. ]

यदि यह बात हमको जब स्वयं के लिए स्वीकार होती है - कि "मैं अपने सबसे करीबी संबंधों को अपनी बात समझाने में असमर्थ हूँ!" तो स्वयं में "समझने" की ज़रुरत का अहसास होता है. अन्यथा हम अपने को पहले से ही समझा हुआ माने रहते हैं. इस तरह समझने का रास्ता अपने लिए बंद किये रहते हैं.

तो मूल मुद्दा "समझना" है. समझने के बाद "करना" स्वयं-स्फूर्त होता है. समझने से पहले "करना" किसी न किसी आवेश या दबाव वश ही होता है. आवेश और दबाव में हम यदि कुछ भी करते हैं, उससे समस्या ही हाथ लगती है, समाधान हाथ लगता नहीं है. सभी आवेश भ्रम वश ही होते हैं.

समझ आवेश से मुक्ति है. समझ के "ठन्डे-दिमाग" से "करना" बनता है - जिससे समाधान ही जीने में प्रमाणित होता है.

समझ को स्वत्व बनाने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन के लिए एक प्रस्ताव है.

समझ जब तक स्वत्व नहीं बनी है - तब तक अध्ययन है.

यह अध्ययन-क्रम में की गयी प्रस्तुति है.
आपका सहृदय आभार..

3 comments:

Rakesh Gupta said...

यह बहुत सुन्दर प्रस्तुति है. इस बात को थोडा आगे बढ़ा सकते हैं.

दो भाग हैं - "समझना" और "करना".

हम कुछ न कुछ हर समय "कर" ही रहे होते हैं. इस तरह जीते हुए हम "कर के समझने" का प्रयास कर रहे होते हैं. विज्ञान विधि में भी "करके समझने" का सन्देश है. "practical करके देखोगे तो समझ में आएगा" - ऐसा कहते हैं. दूसरे अध्यात्मवादी विधि में भी "कर के समझने" का ही सन्देश है. "यह पूजा करो, ऐसे ध्यान करो, ऐसे दान करो - तब समझ में आएगा" - वे लोग ऐसा कहते हैं. इन दोनों के अलावा तीसरी सोच कोई अभी तक मनुष्य के इतिहास में आयी नहीं है. इन दोनों विधियों से आदमी ने खूब चल के भी देखा है. इन पर चल कर हम कहाँ पहुँच चुके हैं - यह हमारे सामने है.

इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव में सन्देश है - "समझ के करो!"

(१) करके समझ पैदा नहीं होती. समझने से ही समझ आता है. [ इसका प्रमाण है - आदर्शवादी या भौतिकवादी विधि से करके समझ अभी तक धरती पर पैदा नहीं हुई. ]
(२) जो समझा हो, वही समझा सकता है. नासमझ समझा नहीं पाता है. [ इसका प्रमाण है - अध्यापक और माता-पिता बच्चों को समझा नहीं पाते हैं. ]

यदि यह बात हमको जब स्वयं के लिए स्वीकार होती है - कि "मैं अपने सबसे करीबी संबंधों को अपनी बात समझाने में असमर्थ हूँ!" तो स्वयं में "समझने" की ज़रुरत का अहसास होता है. अन्यथा हम अपने को पहले से ही समझा हुआ माने रहते हैं. इस तरह समझने का रास्ता अपने लिए बंद किये रहते हैं.

तो मूल मुद्दा "समझना" है. समझने के बाद "करना" स्वयं-स्फूर्त होता है. समझने से पहले "करना" किसी न किसी आवेश या दबाव वश ही होता है. आवेश और दबाव में हम यदि कुछ भी करते हैं, उससे समस्या ही हाथ लगती है, समाधान हाथ लगता नहीं है. सभी आवेश भ्रम वश ही होते हैं.

समझ आवेश से मुक्ति है. समझ के "ठन्डे-दिमाग" से "करना" बनता है - जिससे समाधान ही जीने में प्रमाणित होता है.

समझ को स्वत्व बनाने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन के लिए एक प्रस्ताव है.

समझ जब तक स्वत्व नहीं बनी है - तब तक अध्ययन है.

यह अध्ययन-क्रम में की गयी प्रस्तुति है.

धन्यवाद, राकेश...

Alpana Verma said...

'समझने" की ज़रूरत आदमी को है समझ के आधार पर जीने की ज़रूरत आदमी को है। '
बहुत अच्छा लेख लिखा है आप ने रोशनी जी.
अच्छा विषय भी है.
चित्र भी सटीक.

Unknown said...

बहुत ही अच्छा लेख है