Thursday, January 21, 2010

"मानव समझना चाहता है"

इसका प्रमाण हमें कैसे मिलता है?
जैसे ही एक बच्चा बोलना (भाषा) शुरू करता है वह क्या करता है?
प्रश्नों की बौछार.....
ये क्या है? वो क्या है? है ना?


उसे डांटना पड़ता है ,रोकना पड़ता है....प्रश्न सुन सुन कर चिढ़ होने लगती है इतना प्रश्न करता है।
क्या किसी ने उसको training दिया है की तुम प्रश्न पूछने के लायक हो गए हो तुमको अब प्रश्न पूछना चाहिए।
तो......बच्चे समझना चाहते हैं कि नहीं समझना?

देखिये दो चीज में बच्चे का ध्यान पूरा पूरा है सबसे पहले वह पैदा होता है तो भोजन की आवश्यकता .......तो हर चीज को मुँह की तरफ ले जाता है.....जैसे ही बोलना शुरू करता है तुरंत उसकी बहुत सारी जिज्ञासाएँ शुरू हो जाती है।
तो समझने कि जरुरत मानव के भीतर स्वाभाविक है.....है ना!
फिर बच्चे पढ़ने में मन क्यों नहीं लगाते?

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एक टिपण्णी आदरणीय राकेश जी से -

आपने पूछा - "मानव समझना तो चाहता है इसका प्रमाण क्या है?"मैं इस प्रश्न को इस तरह समझा - मैं स्वयं समझना चाहता हूँ, यह बात मुझे पता है. लेकिन समझ का प्रमाण क्या होगा - यह मुझे पता नहीं है. यह एक मौलिक बात है. मनुष्य में "समझ की चाहत" बनी हुई है. यह हर बच्चे-बड़े में समान रूप से है. यह चाहत एक "खोखलेपन" के रूप में हर मनुष्य में है. सब कुछ करने के बाद भी कुछ अभी शेष है - यह रिक्तता मनुष्य में जन्म से मृत्यु तक बनी रहती है. समझ की चाहत ही "सुख की चाहत" है. सुख को हम जानते नहीं हैं, पर सुख चाहते हैं. समझ हमें मिली नहीं है, पर हम समझ चाहते हैं. इस कमी को पूरा करने के लिए ही मध्यस्थ-दर्शन का अनुसंधान हुआ, जो अब अध्ययन के लिए उपलब्ध है. सुख का प्रमाण सुखी-मनुष्य ही होगा. सुखी-मनुष्य के बिना हम "सुख" को पहचान नहीं सकते. समझ का प्रमाण समझदार आदमी ही होगा. जीते-जागते समझदार-आदमी के बिना हम "समझदारी" को पहचान नहीं सकते.समझ का प्रमाण के रूप में एक "समझदार-मनुष्य" को यदि हम पहचान पाते हैं, और स्वयं को यदि "समझ चाहने वाले मनुष्य" के रूप में पहचान पाते हैं - तो अध्ययन करने में मन लगता है. नहीं तो अध्ययन में पूरा मन नहीं लगता. ध्यान बंटा ही रहता है. अध्ययन के लिए मन लगना ही एकाग्रता है, या ध्यान-देना है. समझदार आदमी की बात पर ध्यान देने पर हम समझ सकते हैं। समझदार-आदमी की बात ही "प्रेरणा" है - जिससे अध्ययन करने वाले की कल्पनाशीलता "प्रेरित" होती है। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु ही "समझ" है। बारम्बार समझने के प्रयास से समझ में आ जाएगा - मैं स्वयं को उसी क्रम में पाता हूँ. समझ कर "समझ का प्रमाण" हम अपने जीने में प्रस्तुत कर सकते हैं. स्वयं सुखी रह सकते हैं. दूसरों के लिए प्रेरणा-स्त्रोत भी बन सकते हैं.

आदरणीय राकेश जी आपका सहृदय आभार....

5 comments:

कडुवासच said...

.... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बढिया है.

شہروز said...

आपके सभी ब्लॉग देखे.आपकी मनोवैज्ञानिक कौशल की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता!!
अपनी समझ की ताज़गी और भावनाओं की निश्चलता को बनाए रखें.

दुआ है, ज़ोर कलम और ज्यादा!

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

एक उम्दा प्रस्तुति....शुभकामनायें....

संजय भास्‍कर said...

behtreen abhivyakti...