श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी व राकेश भैया जी के बीच हुए इस संवाद का अधिकतर भाग इस पोस्ट में प्राप्त हुआ। इसे भी वीडियो देखने के बाद पढ़ने से बाबा जी क्या कह रहे हैं इसे समझने में मदद मिलेगी।
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*संयम काल में अध्ययन*
प्रश्न: समाधि के बाद संयम में आपने गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता को कैसे अध्ययन कर लिया?
उत्तर: आपको मुझसे यह सूचना के रूप में बात मिली है कि मैं साधना, समाधि, संयम विधि से मध्यस्थ-दर्शन की पूरी बात को पाया हूँ। उससे आप यह कह रहे हैं - संयम काल में मैंने गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता को कैसे अध्ययन कर लिया, जिसका परम्परा में कोई जिक्र नहीं था। आपका यह जिज्ञासा पूरा होना चाहिए - यह मेरा शुभ-कामना है।
मेरे पास पहले से यह कोई विचार नहीं था कि मैं यह अध्ययन करूंगा। पहला मुद्दा यह है। संयम करने से पहले मेरे पास अध्ययन का कोई syllabus नहीं था। उससे पहले समाधि में मैंने अपने आशा, विचार, और इच्छा को चुप होते देखा था। ऐसे स्थिति में - दिन में १२-१८ घंटे तक मैं ज्ञान होने का इन्तेज़ार में रहता था। समाधि में ज्ञान हुआ नहीं। अब क्या किया जाए? समाधि में ज्ञान नहीं होता - इसका अपने साथी, सहयोगी, और मित्रों को message देना है। पतंजलि योग-सूत्र में लिखा है - यदि संयम सफल होता है, तो समाधि होने की गवाही हो जाती है। उसके आधार पर संयम करने के लिए मैंने अपने मन को तैयार किया।
संयम के बारे में शास्त्रों में जो लिखा था - वह सिद्धि मात्र को प्राप्त करने के लिए है, ऐसी मेरी स्वीकृति हुई। सिद्धियाँ तो संसार को बुद्धू बनाने वालों को चाहिए। मुझे सिद्धि नहीं चाहिए - यह मैंने स्वीकारा। शास्त्रों में लिखा था - धारणा , ध्यान, और समाधि इन तीनो को जब हम इस क्रम में एकत्र करते हैं तो संयम होता है। मुझ में यह अन्तः-प्रेरणा हुई कि इस formula को उलटाया जाए। वैसा करने से शायद कुछ निकले - जो इससे भिन्न होगा। क्या भिन्न होगा - वही उसकी गवाही होगी। इस तरह मैंने समाधि, ध्यान, धारणा - इस क्रम में इन स्थितियों को एकत्र करने का निर्णय किया। स्वयं पर विश्वास और दृढ़ता करने की प्रवृत्ति मुझ में पहले से ही थी।
मैं पहले धारणा, ध्यान, और समाधि की भूमियों से गुजरा ही था - इसलिए इन स्थितयों को एकत्र करने में मुझको कोई मुश्किल नहीं हुई। न ही इसमें कोई ज्यादा समय लगा। इस तरह मैं अपने चित्त और वृत्ति को लगाने में तत्पर हुआ। कुछ चार महीने के बाद - मैं बहुत सारी ध्वनियां सुनने लगा - कई ऐसी ध्वनियां जो मैं पहले सुना नहीं था। मैंने सोचा - मुझे कर्ण-नाद तो नहीं हो गया है? लेकिन संयम के समय के बाद ऐसी कोई ध्वनियां होती नहीं रही। यह क्या है? - यह आगे पता चलेगा, यह सोच कर आगे चले। कुछ समय के बाद वे ध्वनियां शांत हो गयी। शांत हो गया - एक दम। शांत होने के स्थिति में वैसा ही था - जैसे गहरे पानी में डूबने पर आँखे खोलने पर सूरज, पानी, और आंखों के बीच जैसा दिखता है - वैसी ही स्थिति में मैं संयम में स्थित हो गया।
फ़िर धीरे-धीरे प्रकृति अपने आप उभड-उभड कर सामने आने लगी। धरती अपने स्वरुप में आयी। वनस्पतियाँ अपने स्वरुप में आयी। जीव संसार अपने स्वरुप में आया। मनुष्य संसार अपने स्वरुप में आया। ऐसा होने लगा। पहले धरती आयी। फ़िर ऐसी अनंत धरतियां। यह कोई महीने भर चला होगा। जैसे सिनेमा में देखते हैं - वैसे मुझको संसार दीखता रहा। इसके आगे चलने पर - एक चट्टान - फ़िर उसके detail में जाने पर, जैसे चूना पिघलता है, वह पिघला। और पिघल कर के फैला - और फ़ैल करके फैलते-फैलते उस जगह में आ गया, जहाँ वह हर भाग स्वचालित स्थिति में था। ऐसा मैंने परमाणु को देखा, पता लगाया।
इस तरह से कई चीजें पिघल पिघल कर मूल रूप में परमाणु के रूप में होने को मैंने देखा है। कुछ वस्तुओं के नाम मैं जानता हूँ, कुछ के नाम भी मैं नहीं जानता। ऐसे चीजों को पिघल कर स्वचालित स्वरुप में detail में मैं पहचाना। "यही परमाणु है।" - यह मैंने cognate किया। इस परमाणु को चलाने वाला कोई नहीं है - यह पहचाना। अनेक प्रजाति के परमाणुओं को व्यापक वस्तु में डूबा हुआ, भीगा हुआ, और घिरे हुए स्वरुप में देखा।
उसके बाद प्राण-कोशा के स्वरुप में देखा। प्राण-कोशा के मूल रूप में यौगिक क्रिया के स्वरुप में अपने सम्मुख में आते हुए चित्र के रूप में देखता रहा। इसमें मुझे बहुत खुश-हाली होती रही। इस तरह हर वस्तु का detail में अध्ययन होता है, इसके अलावा पढने को चाहिए ही क्या? यही पढने की वस्तु रही। ऐसा पढ़ते-पढ़ते मनुष्य आ गया। मनुष्य में प्राण-कोशा से रचित शरीर। प्राण-कोशा पहले स्पष्ट हुए - प्राण-कोशा कैसे बनते हैं। प्राण-कोशा के मूल में प्राण-सूत्र, प्राण-सूत्र के मूल में पुष्टि-तत्व और रचना-तत्व। पुष्टि-तत्व को आप लोग protein कहते हो। रचना-तत्व को आप लोग harmone कहते हो। आप लोग वह भाषा जानते हैं - उस वस्तु को जानते नहीं हैं। वस्तु को मैं जानता हूँ। आप पुष्टि-तत्व को जानते नहीं हैं - पुष्टि-तत्व का नाम जानते हैं। वह पुष्टि-तत्व वस्तु के रूप में क्या है - वह आप नहीं जानते - उसको मैं जानता हूँ। उसी प्रकार प्राण-कोशा और प्राण-सूत्रों से रचना। प्राण-सूत्रों का नाम आप जानते हैं - वह प्राण-सूत्र किस वस्तु से कैसे बना है, उसको मैं देखा हूँ। रचना-तत्व और पुष्टि-तत्व निश्चित अनुपात में एक दूसरे से जुड़ जाते हैं - वैसे ही जैसे दो परमाणु-अंश एक दूसरे को पहचान करके साथ हो जाते हैं। जुड़ते हुए देखा है मैंने! जुड़ करके प्राण-सूत्र होते हुए देखा है! प्राण-सूत्र बन कर जल में निमग्न रहता हुआ देखा है। रसायन-जल में निमग्न रहते हुए - उनमें श्वास लेने और छोड़ने की क्रिया की शुरुआत होते हुए देखा है! इससे ज्यादा क्या detail में देखना है? देखना है? मुझको पहले से यह सब देखने की इच्छा थी - ऐसा कुछ नहीं था। अपने आप से यह सब देखने को मिला।
प्राण-सूत्रों में जब श्वसन और प्रश्वसन की प्रक्रिया शुरू होती थी - तो उनमें एक खुशहाली दिखाई देती थी। उस खुश-हाली के साथ उनमें एक रचना विधि उभर के आ जाती थी। उस रचना में वे संलग्न हो जाते थे। उसके बाद बीज-वृक्ष न्याय विधि से उनकी परम्परा बनी। उसकी खुश-हाली से दूसरी रचना-विधि निकली। दूसरी रचना किए। वह फ़िर परम्परा हुआ - बीज वृक्ष विधि से। इस ढंग से अनेक रचनाएँ प्राण-सूत्रों से हुई।
रसायन तत्वों के मूल में गए - तो उनके मूल में है "जल"। किसी भी धरती पर पहला यौगिक वस्तु जल ही है। जल धरती पर ही टिकता है। घरती से मिल कर जल अम्ल और क्षार ग्रहण कर लेता है। किसी निश्चित अनुपात में अम्ल और क्षार मिल कर पुष्टि-तत्व होता है। किसी निश्चित अनुपात में मिल कर वे रचना-तत्व होते हैं। इसको देखा। इस तरह प्राण-सूत्रों का बनना देखा। प्राण-सूत्रों से रचनाएँ होते देखा।
संयम काल में कुछ कुछ जगह पर मैंने संस्कृत लिपि में लिखा हुआ भी देखा। यह सब बात देखने पर मुझे विशवास हुआ - यह संयम तो पढने की चीज है! इसको आगे बढाए - चारों अवस्थाएं जब स्पष्ट हो गयी, यह फ़िर दोहराने लगा।
पहले एक वर्ष मैं इन्तेज़ार ही करता रहा। फ़िर २-३ महीने ध्वनियों की बात रही, उसके बाद समाधि के आकार में आने में कुछ समय लगा, उसके बाद ध्यान की जगह में मैं जैसे ही पहुँचा - यह सब "तांडव" होने लगा! पूरा जड़ और चैतन्य प्रकृति व्यापक वस्तु में अपने आप को किस तरह से निरंतर पाया है। दूसरे - योग संयोग कैसे प्रकट हुआ है।
एक दिन मैं संयम में देखता हूँ - परमाणुएं अपने आप एक लाइन में लग गए। एक, दो, तीन, चार, उन्हें मैं गिन सकता था। कुछ संख्या के बाद परमाणुओं का अजीर्ण होना मिला। जो परमाणु अपने में से कुछ परमाणु-अंशों को बहिर्गत करना चाह रहे हैं - उनको मैंने अजीर्ण नाम दिया। उससे पहले कुछ परमाणुओं को भूखे परमाणुओं के रूप में देखा। वे परमाणु अपने में कुछ और परमाणु-अंशों को समा लेना चाह रहे हैं। इन दोनों तरह के परमाणुओं के मध्य में मैं एक ऐसे परमाणु को भी देखा - जो अपने एक आकार में घूम रहा है। जबकि बाकी सब परमाणु अपनी जगह में बैठे हैं। जब उस परमाणु को एक जगह में स्थिर होते हुए देखा - तब पता लगा इसकी गठन-तृप्ति हो गयी है। इस तृप्त परमाणु को गठन-पूर्ण परमाणु नाम दिया।
प्रश्न: क्या आपने संक्रमण होते हुए भी देखा?
नहीं। संक्रमण की कोई अवधि नहीं होती - इसलिए वह नहीं देखा। समय विहीनता का दर्शन नहीं होता। समय-विहीनता का मात्र अनुभव होता है। कतार में भूखे, अजीर्ण, और तृप्त परमाणु हैं - उनको देखा। लेकिन संक्रमण होते हुए नहीं देखा। संक्रमण हो गया है - यह अपना capacity लगता ही है, interpret करने में। वैसे ही - जैसे किसी क्रिया को नाम देने में हमारा capacity लगता है। तृप्त परमाणु अपने गठन में पूर्ण हो गया - तभी यह अपने आकार को बनाए रखा। गठन-पूर्ण परमाणु अनु-बंधन और भार-बंधन दोनों से मुक्त हो गया - और आशा-बंधन से युक्त हो गया। आशा-बंधन के आधार पर यह अपना पुंज-आकार बनाया। उस आकार की शरीर-रचना सह-अस्तित्व में प्रकटन विधि से उपलब्ध रही - जिसको चलाने के लिए प्रवृत्ति।
जीवन-परमाणु को पहले मैंने पुन्जाकर स्वरुप में देखा। उसके बाद धीरे-धीरे वह परमाणु के रूप में सम्मुख हुआ। उसमें मैंने देखा - मध्य में एक ही अंश है। यह देखने के लिए परमाणु कितना magnify हुआ होगा - यह मैं नहीं कह सकता। पर मैं परमाणु-अंशों को गिन सकता था। हर बात को मैं समझ सकता था। मध्य में एक अंश, पहले परिवेश में २, दूसरे में ८, फ़िर १८, फ़िर ३२ - इस तरह ६१ परमाणु-अंशों को मैंने जीवन-परमाणु में देखा।
इन ६१ परमाणु-अंशों में परावर्तन और प्रत्यावर्तन दोनों हैं। परावर्तन में प्रकाशन करना बनता है। प्रत्यावर्तन में स्वीकार करना बनता है। इस तरह जीवन में ६१ परावर्तन और ६१ ही प्रत्यावर्तन में क्रियाएं हैं। इन कुल १२२ क्रियाओं को मैंने मानव-संचेत्नावादी मनोविज्ञान में स्पष्ट किया है। संयम काल में जीवन की क्रियाओं को गिनने का काम मैंने किया।
प्रश्न: इस सब में कितना समय लगा?
संयम काल में अध्ययन करने में मुझे ५ वर्ष लगे। जब तक मैंने यह नहीं माना कि मेरा अध्ययन पूरा हो गया है - इस दृश्य की पुनरावृत्ति होती रही। इससे मैंने माना कि नियति स्वयं प्रकटनशील है। इसमें कोई रहस्य नहीं है। अस्तित्व कोई रहस्य नहीं है - मैं यहाँ आ गया। यह स्वयं में विश्वास होने पर कि मेरा अध्ययन पूरा हुआ - फ़िर पहले जैसे ही अनेक धरतियां, जलता हुआ सूरज जैसा प्रतिबिंबित होता रहा। कई धरतियों को मैं देखते रहा। इन धरतियों में से कई में चारों अवस्थाओं को स्थापित भी देखा। स्थूल से स्थूल और सूक्ष्म से सूक्ष्म सब कुछ देखने के पर मैंने निर्णय किया - यही अस्तित्व है। यही व्यापक में संपृक्त प्रकृति है। इस बात में जब मुझको पूरा विश्वास हुआ - उसके बाद मैंने संयम को बंद किया।
प्रश्न: आपको जैसा अस्तित्व अध्ययन हुआ - क्या हमको भी वैसा ही अध्ययन होगा?
भाषा से वांग्मय के रूप में जो मैंने प्रस्तुत किया है - उसके अर्थ में जाओगे तो आपको वही मिलेगा। आपके पास उसके लिए agency है - कल्पनाशीलता। कल्पनाशीलता आपके पास agency है - अर्थ तक पहुँचने के लिए। अर्थ अस्तित्व में है। भाषा से जो मैंने कहा है - उसका अर्थ अस्तित्व में है।
मुझे यह पता लगा - मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में है। जागृति जीवन द्वारा दसों क्रियाएं व्यक्त करने के रूप में हैं। १० क्रियाओं के detail में १२२ आचरण हैं - ६१ परावर्तन में, ६१ प्रत्यावर्तन में। इनको गिनने के बाद मुझको तृप्ति हुई कि संयम जो मैंने किया था, वह सार्थक हुआ। संयम सार्थक होने के बाद प्रयास ख़त्म हो गया।
इससे यह निकल गया - (१) भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है। (२) अस्तित्व में परिवर्तन है - उत्पत्ति नहीं है।
तृप्त परमाणु को मैंने पुंज-आकार में होता हुआ देखा। कभी घोडे, कभी गधे, कभी बकरी, तो कभी मानव के आकार में। कई प्रकार से यह दीखता रहा - यह महीनो तक चला। उसके बाद पुन्जाकार के मूल में परमाणु अपने में स्थिर हुआ - वह भी बाकी भूखे और अजीर्ण परमाणुओं की कतार में जैसे देखा था, वैसे ही एक परमाणु ही है। उसमें चार परिवेश और एक मध्य में अंश देखा। यह मुझ को समझ में आ गया : यह एक विशेष परमाणु है - जिसमें तृप्ति है। जब उसकी पूरी क्रियाएं मेरी गिनती में आ गयी - यह पता लगा उसमें परावर्तन और प्रत्यावर्तन दोनों है। जब ६१ प्रकार के परावर्तन और प्रत्यावर्तन का अध्ययन मेरा पूरा हो गया तो मैंने माना मेरा जीवन का अध्ययन पूरा हो गया।
विगत में कहा था - ब्रह्म से जीव-जगत पैदा हुआ। जीव के ह्रदय में ब्रह्म बैठा हुआ है - यह लिखा था। यह सब झूठ निकल गया। इसके विपरीत मैंने पाया - जीवन एक गठंपूर्ण परमाणु है, जो शरीर को चलाता है। मनुष्य शरीर के साथ एक विशेषता देखी - जीवन की कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को इसके साथ दूर दूर तक फैलता देखा। यहाँ तक मैंने देख लिया।
समाधि से बाहर निकलने पर मैं जीवन से सम्बंधित बात को मैं अपने में अध्ययन करता ही रहा। होते-होते पता चला - जीवन ही भ्रम-वश बंधन में पीड़ित होता है। जीवन ही जागृत हो कर बंधन से मुक्त हो जाता है। भ्रमित होने से बंधन। भ्रम-मुक्त होने से जागृति। भ्रम अति-व्याप्ति, अनाव्याप्ति, और अव्याप्ति दोष है। फ़िर भाषा से तो मेरे पास पहले से थोड़ा था ही - उसके साथ परिभाषा के साथ मैं समृद्ध हुआ। धीरे धीरे इस बात को मैं दूसरों को बताने में सफल हुआ।
प्रश्न: व्यापक वस्तु के पारगामी और पारदर्शी होने का आपने कैसे अनुभव किया?
जड़ और चैतन्य व्यापक वस्तु से घिरा है - यह मैंने देखा। डूबा हुआ है - यह देखा। भीगा हुआ है - यह देखा। भीगा हुआ से पारगामियता स्पष्ट हुई। डूबा हुआ है - यह क्रियाशीलता के रूप में पहचाना। एक दूसरे का परस्परता में प्रतिबिम्बन है - इससे पारदर्शिता समझ में आ गयी। प्रतिबिम्बन विधि से ही इकाइयों की परस्परता में पहचान है। ४-५ वर्ष में यह बात कितनी ही बार दोहराया होगा - जब तक मैं तृप्त नहीं हो गया, तब तक यह repetition होता रहा। जो मैं साधना किया था - वही इस बात को बनाए रखा ऐसा मैं मानता हूँ।
इस तरह - समाधि होता है, संयम होता है - ये बात attest हुई। योग, आगम तंत्र उपासना विधि से जो समाधि की तरफ़ जो इशारा किया है, वह ग़लत नहीं है। समाधि में ज्ञान होता है, जो लिखा - वह ग़लत है!
सम्पूर्ण अस्तित्व क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।
जीवन क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।
मानवीयता पूर्ण आचरण क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।
प्रश्न: क्या संयम काल में आपकी कोई पूर्व स्मृतियाँ भी कार्य-रत थी?
उत्तर: नहीं। समाधि में उनका निरोध हुआ, उसके बाद ध्यान, उसके बाद धारणा। इस तरह संयम काल में मेरी कोई पूर्व-स्मृतियाँ कार्य रत नहीं थी।
प्रश्न: अस्तित्व कैसा है?
उत्तर: अस्तित्व सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में है। जड़ प्रकृति रसायन-प्रक्रिया द्वारा बाकी तीनो अवस्थाओं को प्रकटित करता है। मूलतः पदार्थ-अवस्था से ही सारा रचना है। वही पदार्थ-अवस्था से ही परमाणु में विकास। पदार्थ-अवस्था ही है परमाणु। पदार्थ-अवस्था के परमाणु ही विकास-क्रम में भूखे और अजीर्ण - और विकसित अवस्था में उनको तृप्त या गठन-पूर्ण परमाणु नाम दिया है।
प्रश्न: शरीर में जीवन कैसे काम करता है?
उत्तर: जीवन द्वारा शरीर को चलाने के लिए मेधस-तंत्र समृद्ध होने की ज़रूरत है। मेधस-तंत्र समृद्ध हुए बिना जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाना बनता नहीं है। शरीर और जीवन के बीच मेधस-तंत्र एक battery है। जीवन पहले इस battery को चार्ज करता है। मेधस तंत्र को प्रभावित करने से पूरा मेधस-तंत्र चार्ज हो जाता है। तो शरीर जीवंत दीखता है। शरीर एक प्राण-कोशाओं से बना ताना-बाना है। हर प्राण-कोषा सत्ता में भीगा है। दो प्राण-कोशों के बीच की रिक्त-स्थली में से जीवन travel करता रहता है। गर्भावस्था में horizontal विधि से travel करता है, और उस तरह शिशु को जीवंत बनाता है। शिशु के बाहर आने पर जीवन horizontal और vertical दोनों विधियों से घूमता है। दोनों विधियों से संचार को स्थापित करके प्राण-कोशाओं के बीच के रंध्रों में से घूमता रहता है। उसकी स्पीड की कोई गणना नहीं की जा सकती। अक्षय-गति के रूप में यह पुन्जाकार है। उसकी गति के आगे संख्या defeat हो जाती है। किसी भी विधि से जीवन की स्पीड का संख्याकरण नहीं किया जा सकता।
प्रश्न: अस्तित्व क्यों है? अस्तित्व का प्रयोजन क्या है?
उत्तर: अस्तित्व का लक्ष्य है - सह-अस्तित्व में मानव द्वारा ज्ञान-अवस्था में प्रमाणित होना। इसी लक्ष्य या प्रयोजन के लिए अस्तित्व है। दूसरे शब्दों में - यही अस्तित्व का प्रयोजन है। इसी लक्ष्य या प्रयोजन के लिए अस्तित्व में स्वयं-स्फूर्त प्रकटन विधि है। ज्ञान-अवस्था के प्रमाणित होने के लक्ष्य से ही सह-अस्तित्व विधि से अस्तित्व में प्रकटन है। अस्तित्व में प्रकटन है - पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और अंत में ज्ञान-अवस्था। ज्ञान-अवस्था में सह-अस्तित्व का परम प्रमाण प्रस्तुत होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
साभार- http://madhyasth-darshan.blogspot.in/2008/08/blog-post_02.html